सोमवार, 29 दिसंबर 2014

चीन द्वारा जलभंडारों पर कब्जे ने बढ़ाई भारत की चिंता

कविता जोशी
यूं तो चीन का भारत के साथ पश्चिमी से लेकर पूर्वी सीमा तक अंतरराष्ट्रीय सीमा का स्पष्ट निर्धारण ना होने की वजह से लंबे समय से विवाद चल रहा है। दुनिया इस विवाद को जमीनी विवाद के नाम से जानती है। लेकिन अब चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति या जिसे हम जमीनी कब्जे की लड़ाई के नाम से भी जानते हैं के रूख को पानी के विशाल भंडारों पर कब्जे की ओर मोड़ना शुरू कर दिया है। पानी के लगभग यह सभी विशाल भंडार चीन के कब्जे वाले तिब्बत में मौजूद हैं। पानी के इन्हीं स्रोतों से भारत की भी बड़ी आबादी का भरण-पोषण होता है। चीन लंबे समय से इस इलाके में बांधों की एक के बाद एक छोटी-बड़ी लड़ियां खड़ी करने में लगा हुआ है, जिससे भारत के माथे पर चिंता की लकीरें पड़ने लगी हैं। इसके वाजिब कारण भी है क्योंकि चीन (तिब्बती पठार) से निकलने वाली यह नदियां वहां से होकर भारत में प्रवेश करती हैं। भौगोलिक आधार पर इसे समझे तो इस मामले में चीन को नदियों के स्रोत का मालिक (अपर रीपाराइन स्टेट) भी कहा जाता है। अब अगर वो तिब्बत से निकलने वाली प्रमुख नदियों पर बांध बनाएगा तो उससे भारत को नदी के जलप्रवाह में होने वाले बदलाव से लेकर, चीन द्वारा संकट के समय भारत में ज्यादा पानी छोड़े जाने से बाढ़ का खतरा होगा। इसके अलावा भूसस्खलन जैसी विकराल समस्याएं भी तेजी से उठ खड़ी होंगी। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि चीन पूर्वोत्तर में ब्रह्मपुत्र नदी पर कई बांध बना रहा है। बह्मपुत्र का उदगम तिब्बत से होता है और इसके बाद यह भारत में प्रवेश कर बांग्लादेश के रास्ते बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है। इसके अलावा भारत के माथे पर बल इसलिए भी पड़ गए हैं कि चीन लगातार बह्मपुत्र नदी पर तो बांध बना ही रहा है। साथ ही यहां से निकलने वाली अन्य नदियों जिनका ज्यादातर इलाका भारत के अन्य पड़ोसी देशों में पड़ता है को भी बांध निर्माण के लिए जरूरी तकनीकी और धन मुहैया करा रहा है। इसकी ताजा मिसाल चीन का पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से लेकर म्यांमार और बांग्लादेश में बांध परियोजनाआें को लेकर चल रहा काम मुख्य रूप से शामिल है।

ब्रह्मपुत्र नदी का उदगम और इतिहास
बह्मपुत्र नदी का उदगम तिब्बत में कैलाश पर्वत के निकट जिमा यांगजांग झील है। आरंभ में यह तिब्बत के पठारी इलाके में यार्लुंग सांगपो नाम से लगभग 4 हजार मीटर की औसत ऊंचाई पर, 1700 किलोमीटर तक पूर्व की ओर बहती है। इसके बाद नामचा बर्वा पर्वत के पास दक्षिण-पश्चिम की दिशा मेंं मुड़कर भारत के अरूणाचल-प्रदेश में प्रवेश करती है जहां इसे शियांग कहते हैं। ब्रह्मपुत्र मध्य और दक्षिण-एशिया की एक बड़ी नदी है। नदी की अधिकतम गहराई 321 मीटर है। तिब्बत में नदी सबसे गहरी है, यहां इसकी अधिकतम गहराई 321 मीटर है। शेरपुर और जमालपुर में इसकी अधिकतम गहराई 281 मीटर है। ब्रह्मपुत्र की उपनदियों में सुवनश्री, तीस्ता, तोर्सा, लोहित, बराक आदि शामिल हैं। बह्मपुत्र के किनारे बसे शहरों में डिब्रूगढ़, तेजपुर, गुवाहाटी प्रमुख हैं। यहां एक ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में नदियों के नाम स्त्रीलिंग में होते हैं लेकिन ब्रह्मपुत्र इस मामले में एक अपवाद है। इसका नाम ब्रह्मपुत्र है, जिसका संस्कृत में शाब्दिक अर्थ ब्र्रह्म्मा का पुत्र होता है। ब्रह्मपुत्र नदी की लंबाई करीब 2 हजार 918 किलोमीटर है। बांग्ला भाषा में इसे जमुना कहा जाता है। चीन में यरलुंग जैÞगंबो जियांग, तिब्बत में यार्लुंग सांगपो, अरूणाचल में दिहांग और असम में ब्रह्मपुत्र के नाम से जाना जाता है। नदी की तिब्बत से शुरू हुई यात्रा में यह ऊंचाई को तेजी से छोड़ मैदान में प्रवेश करती है जहां इसे दिहांग नाम से जाना जाता है। असम में नदी काफी चौड़ी हो जाती है और कहीं-कहीं तो इसकी चौड़ाई 10 किलोमीटर तक है। डिब्रूगढ़ तथ लखिमपुर जिले के बीच नदी दो शाखाओं में विभक्त हो जाती है। असम में नदी की दो शाखाएं मिलकर मजुली द्वीप बनाती है जो दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप है। असम में नदी को लोग प्राय: ब्रह्ममपुत्र के नाम से बुलाते हैं, पर बोडो लोग इसे भुल्लम-बुथुर भी कहते हैं, जिसका अर्थ होता है कल-कल की आवाज निकालना।

चीन की बांध बनाने की क्षमता
इतिहास में चीन के अलावा दुनिया का कोई दूसरा देश नहीं है जो तेजी से बांध निर्माण के मामले में सबसे आगे हो। चीन ने ना केवल दुनिया का सबसे बड़ा थ्री जॉर्जेज बांध का निर्माण किया है। इसके अलावा चीन ने कुल 80 हजार बांधों का निर्माण किया है। यह दुनिया में हुए समूचे बांध निर्माण से भी कहीं ज्यादा है। इस वजह से उसके 23 मिलियन से ज्यादा लोगों को अपना घरबार छोड़ना पड़ा है। इन सबके बावजूद चीन अपनी नदियों के प्रवाह में दो तरीके से बदलाव करने में लगा हुआ है, जिसमें वो आंतरिक से हटकर अंतरराष्ट्रीय नदियों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और उनमें बांध बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है।

चीन की प्रमुख बांध परियोजनाएं
-थ्री जॉर्जेज बांध-इस बांध का निर्माण कार्य वर्ष 2009 में पूरा हो गया था और इसने वर्ष 2012 मेंं काम करना शुरू कर दिया था। शिनलिंग शिया जॉर्ज पर बने इसे बांध की वजह से पूर्व में यांगजे नदी की बाढ़ की समस्या से निजात मिली। इस बांध की बिजली उत्पादन की क्षमता 22 हजार 500 मेगावाट है।

-द साउथ-नार्थ वॉटर ट्रांसफर प्रोजेक्ट (एसएनडब्ल्यूटीपी)-इसे येलो नदी पर बनाया गया है। इसे थ्री एच बेसिन के नाम से भी जाना जाता है। पंरपरागत रूप में इसे हे ही, हुवांग हे, हुई हे भरण-पोषण (बे्रड बॉस्केट) की टोकरी भी कहा जाता है। इसमें यांगजे नदी को तीन दिशाओं से जोड़ने का प्रस्ताव है, जिसे पूर्वी, केंद्रीय और पश्चिमी रूट योजना का नाम दिया गया है। दिसंबर 2002 में इसका काम शुरू हुआ। इससे करीब 44.8 बीसीएम पानी की दिशा बदलने की कोशिश की जाएगी। एक तरह से यह पानी येलो नदी के वार्षिक जलप्रवाह के बराबर है। इस परियोजना पर लगभग 80 बिलियन डॉलर का खर्च आएगा। इसके पूर्वी और केंद्रीय रूट का काम साल 2014 तक पूरा होने की उम्मीद है। इसके अलावा पश्चिमी रूट अभी शुरू नहीं हुआ है,जिसमें योजना है कि यांगजे, ब्रह्मपुत्र और मीकांग नदी के ऊपरी भाग से पानी को परिवर्तित यानि बदलने की योजना है।

ग्रेट वेस्टर्न रूट वॉटर ट्रांसफर प्रोजेक्ट (जीडब्ल्यूआरडब्ल्यूटीपी)-
भारत की चिंता वेस्टर्न रूट स्कीम के तीसरे चरण को लेकर है, जिसमें ब्रह्ममपुत्र नदी पर बांध बनाया जाएगा। यह निर्माण कार्य ब्रह्मपुत्र नदी पर नामचा बर्वा पर ग्रेट बैंड पर किया जाएगा। इससे बिजली का उत्पादन भी होगा और जीडब्ल्यूआरडब्ल्यूटीपी के लिए नदी के पानी की जलधारा में भी बदलाव होगा। तीसरे चरण में दूसरे चरण द्वारा उत्पादित बिजली का प्रयोग किया जाएगा। इसके पूरे होने के बाद यह एक बड़ा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट होगा जिसकी क्षमता 38 मिलियन किलोवाट होगी जो कि थ्री जॉर्जेज बांध से दोगुना ज्यादा होगी। इसमें नदी के पानी के रूख में बदलाव उत्तर की ओर 800 किलोमीटर तक किया जाएगा। इस परियोजना की अनुमानित लागत 300 बिलियन यूआन (48 बिलियन डॉलर) होगी। इसके अलावा एसएनडब्ल्यूटीपी परियोजना की कुल अनुमानित लागत 500 बिलियन यूआन यानि करीब 80 बिलियन डॉलर होगी। तिब्बती पर्यावरणविद तासी शेरिंग का कहना है कि फिजिक्स के नियमों के हिसाब से इस प्रस्तावित बांध के जरिए नदी के पानी में ऊपर की ओर कोई बदलाव नहीं होगा। इसे केवल हॉइड्रोलॉजिकल उद्देश्श्यों के लिए ही प्रयोग किया जा सकता है। इसकी पुष्टि सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के प्रोफेसर बी.जी.वर्जीस ने भी की है। वैज्ञानिक तर्क जो भी हों लेकिन अगर जीडब्ल्यूआरडब्ल्यूटीपी सफल होता है तो इसके ब्रह्मपुत्र नदी से जुड़ी हुई भारत की जरूरतों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। खासकर ब्रह्ममपुत्र के ग्रेड बैंड पर बनाए जा रहा बांध भारत को बुरी तरह से प्रभावित करेगा।

यारलुँग सांगपो हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट (वाईटीएचईपी)
यह बिलकुल सही है कि यार्लंुग सांगपो का ग्रेट-बैंड पर करीब 200 किमी. हिस्सा आएगा। जिससे दो हिस्सों में बहुत अच्छी हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर मिलेगी। पहले तो यह दुनिया का सबसे बड़ा हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट है, जिससे करीब 70 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा। दूसरी ओर यह प्रोजेक्ट ब्रह्ममपुत्र के पानी को हजारों किमी. उत्तर में अपने उत्तर- पश्चिम स्थित दो पहाड़ी इलाकों गांजू और शिनजियांग की प्यास बुझाएगा। मोटयू बांध चीन की योजना ब्रह्ममपुत्र नदी के मेटोग पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध और हाइड्रोपॉवर स्टेशन बनाने की है। यह वो जगह है जहां से ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है। यहां नदी के पानी को जलाशय के रूप में एकत्रित करके उससे बिजली बनाई जाएगी। चीन की हाइड्रो चाइना कारपोरेशन द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक इसकी क्षमता 38 मेगावाट के करीब होगी।

दादूकुई बांध
वर्ष 2010 में चीन की हाइड्रो चाइनाा कारपोरेशन के मुताबिक दादुकुई बांध बिलकुल भारत की सीमा पर बनाया जाएगा। इसके बड़े आकार की वजह से बिजली उत्पादन के लिए इसके 2 हजार मीटर के गिराव वाले पानी का उपयोग किया जाएगा।

जांगमू बांध
जांगमू बांध चीन वर्ष 2010 से बह्ममपुत्र नदी पर जांगमू बांध बनाने का काम कर रहा है। इसके जांगमू हाइड्रोपॉवर स्टेशन से बिजली उत्पादन शुरू हो गया है। तिब्बती पठार पर बना यह चीन का सबसे बड़ा बांध है। चीन ने इसे कुल 9 हजार 600 करोड़ रुपए की लागत से तैयार किया है। इसकी ऊंचाई 116 मीटर है और यह अगले साल 2015 तक पूरी तरह से बनकर तैयार हो जाएगा। तिब्बत में बने इस बांध से 510 मेगावॉट बिजली का उत्पादन होगा। चीन ने इस परियोजना की शुरूआत में इस बांध को पांच चरणों में पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया था जिसे वो अगले वर्ष तक पूरा कर लेगा।

नदियों का मालिक है चीन?
चीन के इलाके से 10 नदियां बहती हैं। यह वो नदियां हैं जो चीन के कब्जे वाले इलाके तिब्बत से होकर गुजरती हैं लेकिन करीब 11 देशों की प्यास बुझाने का काम करती हैं। यह भारत समेत वो बाकी देश हैं, जिनके साथ चीन का कुछ ना कुछ विवाद चल रहा है। दुनिया की 46 फीसदी आबादी की पानी की जरूरतें तिब्बती नदियों से ही पूरी होती हैं। इसी वजह से चीन को उसके पड़ोसियों के बीच में नदियों के मालिक (अपर रीपारियन स्टेट) का दर्जा हासिल है। पानी के भंडारों पर कब्जे को लेकर भी ड्रैगन ने अपनी चतुराई दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। उसने अपने किसी पड़ोसी देश के साथ जल संग्रह को लेकर कोई संधि नहीं की है, जिसकी वजह से वो कानूनी तौर पर भारत समेत पड़ोस के अन्य देशों के साथ तिब्बती नदियों पर जो भी गतिविधियां करता है उसमें कोई बाधाा नहीं डाल सकता या फिर सवालिया निशान नहीं लगा सकता है। सामरिक मामलों के जानकार कहते हैं कि चीन की यह नीति रही है कि वो गुपचुप तरीके से अपनी परियोजनाआें पर काम शुरू करता है, काम को तेजी से पूरा करता है, अपनी मौजूदगी को लगातार नकारता है,जिससे पानी और उससे जुड़ी बाढ़ के नुकसान की नैतिक और आर्थिक भरपाई से बचते हुए अपने लक्ष्य को हासिल किया जा सके।

चीन का जल संकट
जलीय आधार (हाइड्रोलॉजीकली) पर देखें तो चीन भी दो हैं। एक तो जलसमृद्ध दक्षिणी चीन है। यहां औद्योगिकीकरण बेहद कम है और दूसरा उत्तरी चीन है जहां उद्योगों का जमावड़ा है। यांगजे नदी इन दोनों क्षेत्रों के बीच की विभाजन रेखा है। साफ पानी के स्रातों के मामले में चीन दुनिया का चौथा बड़ा देश है, लेकिन अपनी बड़ी जनसंख्या की वजह से यह प्रति व्यक्ति उपभोग के मामले में दुनिया का सबसे छोटा देश है। चीन के ज्यादातर शहरों के पास उनकी जरूरतों को पूरा करने का पानी भी नहीं है। उसका जलस्तर लगातार घट रहा है। कुएं सूख रहे हैं। नदियां, जलधाराएं, झीलें तेजी से गायब हो रही हैं। वर्तमान की बात करें तो चीन के 886 शहरों में से 110 शहर पानी के गंभीर संकट से जूझ रहे हैं।

दक्षिणी चीन जिसमें लगभग 700 मिलियन लोग रहते है। यह चीन के कुल भूभाग का 36.5 फीसदी है। इनके पास पानी का 4/5 भाग आता है। इसके अलावा उत्तरी चीन में जिसकी आबादी 550 मिलियन के करीब है यानि लगभग 63.5 फीसदी के पास पानी का 1/5वां भाग आता है। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो चीन की सीमाओं के भीतर दुनिया की 19.6 फीसदी आबादी रहती है, जिसकी वजह से उसकी पानी की जरूरतें बहुत ज्यादा है। बावजूद इसके चीन की पहुंच वैश्विक पानी के स्रोतों तक केवल 7 फीसदी ही है। उधर चीनी शहरों का 90 फीसदी पानी और नदियों, झीलों का करीब 75 फीसदी पानी प्रदूषित हो चुका है। सतही पानी की बात करें तो अब चीन केवल सतही (सर्फेस) पानी के लिए तिब्बती ग्लेशियरों, नदियों और झीलों पर निर्भर है। इन ग्लेशियरों के पिघलनेसे निकलने वाले पानी से चीन की दो प्रमुख नदियों यांगजे और येलो नदी का जलप्रवाह बने रहने में बेहद मदद मिलती है। वर्ष 1997 से येलो नदी चीन द्वारा डाले जा रहे औद्योगिक कचरे की वजह से सूख रही है।

चीन की पानी की जरूरतें
-चीन पानी के जरिए अपने शिनजियांग, जांझू और मंगोलिया के भीतरी इलाकों के तेजी से मरूस्थल में तब्दील होने की रफ्तार को रोकना चाहता है।
 - येलो नदी को सूखे और प्रदूषण की मार से बचाना चाहता है।
- अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करना चाहता है जो कि वर्ष 2045 तक करीब 1.6 बिलियन तक पहुंच जाएगी।
-कई क्षेत्रों में तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण की वजह से उनकी जलीय आपूर्ति की मांग को पूरा करने के लिए पानी चाहिए।
-बढ़ते हुए औद्योगिकीकरण के लिए पानी चाहिए।
-कृषि आधारित जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी चाहिए। तिब्बत ही है चीन का असली संकटमोचक
भौगोलिक आधार पर देखे तो मानसूनी बादलों का छोटा का टुकड़ा हिमालय पर्वत के बीच से होते हुए तिब्बत पहुंचता है, जिससे तिब्बत में 2 हजार 300
मिलीमीटर वार्षिक बारिश होती है, तिब्बती पहाड़ पानी को इकट्टा करते हैं और धीरे-तेज होते हुए यहां से निकलने वाली नदियों को नियमित जलप्रवाह
प्रदान करते हैं। इसकी वजह से तिब्बत को बड़े पैमाने पर कई नदियों का घर कहा जाता है। यह नदियां यहां से निकलकर मैदानों में जाकर बहुसंख्यक
आबादी का भरण-पोषण करती हैं। तिब्बत को एशिया का ‘वाटर टावर’ भी कहा जाता है। क्योंकि यहां कई बड़ी नदियां निकलती हैं। इन तमाम कारणों
की वजह से चीन, तिब्बत को उसके जल संकट निदान करने वाला अहम कारक समझता है। भारत में पहुंचने या बहने वाली तीन प्रमुख बड़ी नदियां चीन
से होकर ही भारत में प्रवेश करती हैं, जिसमें ब्रह्मपुत्र, सिंधु और सतलुझ प्रमुख हैं।

भारत ने चीन के समक्ष जताई चिंता
तिब्बती पठार में चीन द्वारा कराए जा रहे बड़े विशालकाय बांधों के निर्माण के कार्य में कोई बड़ा विरोध आड़े ना आए। इसके लिए चीन ने भारत के विरोध जताने से पहले ही यह कहना शुरू कर दिया है कि उसके द्वारा किए जा रहे निर्माण कार्य की वजह से भारत को कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन फिर भी भारत की चिंता और उसे चीन के समक्ष रखना बेहद जरूरी है। क्योंकि यह सभी जानते हैं कि प्राकृतिक आपदाएं सरहदों की दीवार से बेपरवाह होती हैं। जब वो आती हैं तो बड़े पैमाने पर विनाश और बर्बादी साथ होती है। इसकी ताजातरीन मिसाल जम्मू-कश्मीर में हमने देखी है, चिनाब नदी ने भारत में जम्मू-कश्मीर से लेकर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) में भी भारी तबाही मचाई थी। अब भारत, चीन से यह सुनिश्चित करने को कह रहा है कि नदी के ऊपरी इलाकों की गतिविधियों से निचले इलाके में रहने वाले लोगों को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। भौगोलिक आधार पर तिब्बती पठार का इलाका ऊपरी है और भारत इसके नीचे पड़ता है। कमोबेश यही स्थिति पश्चिम में लेह-लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर में अरूणाचल-प्रदेश तक है। भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने चीन के सामने रखी अपनी बात जुलाई 2014 में उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी की बीजिंग यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच बह्ममपुत्र नदी को लेकर एक समझौता हुआ था। जिसमें चीन ने 15 मई से 15 अक्टूबर तक बह्ममपुत्र नदी के जलस्तर संबंधी आंकड़ों को साझा करने की बात कही थी जो कि काफी नहीं है। इस प्रतिनिधिमंडल के साथ गए पूर्व सेनाप्रमुख और वर्तमान सरकार में विदेश राज्य मंत्री वी.के सिंह ने कहा है कि वो ब्रह्मपुत्र नदी घाटी का एक विस्तृत अध्ययन तैयार कराएंगे। जिससे चीन से होने वाले जल- प्रवाह के बारे में विस्तार से जानकारी मिल पाएगी। इस स्टडी के जरिए बांधों से होने वाले वास्तविक नुकसान का भी आकलन करने में मदद मिलेगी। एक ओर चीन तिब्बती पठार की नदियों का पानी खींच रहा है तो दूसरी ओर लाओस, पाकिस्तान और म्यांमार जैसे देशों को बड़े बांध बनाने के लिए धन भी मुहैया करा रहा है।

चीन की तार्किक सफाई
चीन बड़ी चतुराई से अपनी सफाई में कहता है कि बह्ममपुत्र नदी पर बनाए जा रहे बांधों पर बहते पानी से बिजली उत्पादन और जल भंडारण की कोई आवश्यकता नहीं होगी। भारत और चीन के बीच जल उपयोग की कोई संधि नहीं है। इसकी वजह से भारत को चीन की जलविद्युत परियोजनाआें से लेकर उसके क्षेत्र में बहने वाली नदियों के प्रवाह की सीमित निगरानी की ही इजाजत है। यह सर्वविदित तथ्य है कि अगर ऊंचाई पर बड़ी नदियों पर बांध बनाए जाते हैं तो उनसे जल-प्रवाह में निश्चित ही बदलाव आता है। एक बार पानी का जलस्तर बढ़ने से निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा बना रहता है।

ब्रह्ममपुत्र पर चीन की नजरें
ब्रह्ममपुत्र नदी पर चीन 27 और बांध बना रहा है। इस नदी का 1 हजार 625 किमी. का इलाका चीन में पड़ता है और लगभग 918 किमी. का इलाका भारत में पड़ता है। इस नदी पर बने जांगमू बांध से हर साल 25 लाख मेगावॉट बिजली पैदा होगी। जांगमू से बड़े 640 मेगावाट बिजली उत्पादन करने वाले एक और बांध को बनाने पर चीन काम कर रहा है।

हिमालय पर बांधों की बाढ़
हिमालय की विभिन्न नदियों पर इस वक्त चीन, भारत, बांग्लादेश, पाक, भूटान, नेपाल बांध बना रहे है ं। आंकड़ों के हिसाब से इस इलाके में करीब 400 बांध प्रस्तावित हैं। तिब्बत की 32 में से 28 बड़ी नदियों पर चीन 100 बड़े बांध बना रहा है। दक्षिण पूर्व एशिया तक बहने वाली मीकांग नदी पर ड्रैगन 60 बांध बना रहा है। यह नदी तिब्बत से चीन के तमाम इलाकों से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में बहती है। इसके अलावा भारत-चीन के पड़ोसी देश 129 जल विद्युत परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। भारत छोटे और निचले इलाकों में करीब 292 बांध बना रहा है।

दूसरे देशों को आपत्ति
इरतिश व इली नदियों पर बांध बनाने का कजाकिस्तान पहले ही विरोध जता चुका है। मीकांग नदी पर चीनी बांधों से थाइलैंड, वियतनाम, लाओस और कंबोडिया को आपत्ति है। मीकांग, यांगसे, ब्रह्ममपुत्र और यलो जैसी नदियों का स्रोत तिब्बत ही है।

चीन के इन बांधों पर विश्लेषण
मोटयू बांध और दादूकुई बांधोंं को बनाने के पीछे चीन की योजना ब्रह्मपुत्र के पानी को काफी हद तक उत्तर की ओर मोड़ने की है। यह कदम एक तरह से वेस्टर्न रूट की एसएनडब्ल्यूटीपी परियोजना की पूर्ति के साथ भी जुड़ा हुआ है। एसएनडब्ल्यूटीपी के जरिए नदी के पानी को उत्तर दिशा की ओर मोड़ने से भारत और बांग्लादेश में नदी के पानी में कमी हो सकती है। दूसरे शब्दों में दोनों देशों को पानी की भारी किल्लत का सामना करना पड़ सकता है। अगर यह बांध भारी मात्रा में पानी को जमा करेंगे तो मानसून के सीजन में कभी भी यह बाढ़ जैसी तबाही आसानी से ला सकते हैं। जून 2000 में यार्लुंग सांगपो नदी के एक बांध टूटने की वजह से आई बाढ़ से भी काफी नुकसान हुआ था। पर्यावरण मामलों के जानकार कहते हैं कि चीनियों द्वारा यह बाढ़ से होने वाली तबाही को मापने का शुरूआती पैमाना भी हो सकता है। इसरो का एक शोध भी चीन के इस विचार की पुष्टि करता है।
इस बात की भी संभावना है कि यार्लुंग सांगपो नदी पर बनाए जा रहे यह बांध भारत के अरूणाचल-प्रदेश में बनाए जा रहे हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को भी नुकसान पहुंचा सकता है। यह परियोजना अभी शुरूआती दौर में हैं।
भारत के लिए सुझाव
भारत को चीन को नदियों के पानी को साझा करने के लिए बातचीत करने के लिए तैयार करना चाहिए जिसमें बांग्लादेश को भी साझीदार बनाना पड़ेगा। क्योंकि ब्रह्मपुत्र पर बांधों से भारत समेत बांग्लादेश को भी नुकसान होगा। इसके अलावा लाओस, थाइलैंड, वियतनाम, कंबोडिया और म्यांमार जैसे प्रभावित देशों के साथ भी संयुक्त रूप से काम करना होगा। इससे सभी जरूरत के वक्त साझा रूप से अपनी समस्याआें को जब चीन के सामने रखेंगे तो वो आसानी से उनकी अनदेखी नहीं कर पाएगा। भारत समेत ऊपर बताए गए सभी देशों को एक संघ का गठन करना चाहिए जिससे वो अपनी बात को ज्यादा मजबूत ढंग से रख सकेंगे।
जरूरत इस बात की भी है कि भारत, संयुक्त राष्ट्र संधि की शर्तों को स्वीकार करे और इसमें चीन को भी जोड़ने का प्रयास करे। अगर चीन बातचीत के लिए आनाकानी करता है तो भारत को यूएन के बेहद महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंच और संसाधनों का इस्तेमाल चीन पर दवाब बनाने के लिए करना चाहिए जिसमें पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देश उसके साझीदार बन सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मंच से होने वाली आलोचना को चीन के लिए दरकिनार करना आसान नहीं होगा। भारत इसमें जल संसाधन से लेकर विदेश और रक्षा जैसे संवेदनशील मंत्रालयों के प्रतिनिधियों को भी इस मसले पर बातचीत में शामिल कर सकता है।

वर्तमान में दो एमओयू हैं जो ब्रह्मपुत्र और सतलुझ के बारे में जलीय यानि हाइड्रोलॉजीकल जानकारी देते हैं। इनका नवीनीकरण वर्ष 2008, 2010 और 2013 में हो चुका है। हमें इन समझौतों का पूरी तरह से उपयोग करके इनके जरिए और भी जानकारियां जुटानी चाहिए। इसमें नदियों से जुड़ी हर छोटी- बड़ी गतिविधि के बारे में तुरंत और विस्तार से जानकारी मिलना सबसे अहम कारक है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका के बारे में विस्तार से जानकारी मिलनी चाहिए। ब्रह्मपुत्र पर एक एमओयू 2013 में साइन हुआ है, जिसमें नदी के जलस्तर, बहाव और बारिश से नदी में आने वाले पानी के बारे में एक जून और 15 अक्टूबर को साल में दो बार जानकारी दी जाएगी। दूसरा समझौता जो कि नदी के पानी से सिंचाई को लेकर किया गया है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इन प्रयासों को इस दिशा में एक बड़ा कदम उठाने की पहल के रूप में देखे जा सकते हैं।

अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान के साथ भी सिंधु नदी समझौते की समीक्षा की जाए। जिससे भविष्य में पाकिस्तान के साथ की जाने वाली किसी भी संधि में चीन को भी भागीदार बनाने में मदद मिलेगी। अगर चीन किसी संधि के लिए तैयार नहीं होता है तो सिंधु नदी समझौता उस पर दवाब बनाने के लिए एक जरिया बनाया जा सकता है लेकिन इसमें भारत को अपनी सुरक्षा की गारंटी के साथ ही कोई कदम उठाना होगा। इन सबके बीच हम यह भी देख पा रहे हैं कि भारत को त्रिपक्षीय समझौते से ज्यादा लाभ होगा जिसमें उसके साथ दो मैत्रीपरक साझीदार देशों पाक और चीन को शामिल किया जा सकेगा।

चीनी जलसंकट से सबक ले भारत 
भारत को चीन के जलसंकट से सबक लेना चाहिए और उसके हिसाब से अपने जलीय संकट से बचने के उपाय करने चाहिए। राष्ट्रीय नदी जोड़ों योजना (रीवर इंटर-लिकिंग परियोजना) इस दिशा में एक अच्छी पहल कही जा सकती है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी वर्ष 2012 में दिए अपने एक आदेश में केंद्र और राज्य सरकारों को इस मामले पर एक निश्चित समय अवधि के दौरान योजना बनाकर उसका क्रियान्वयन करने को कहा था।

ऐसे चीन पर दवाब बना सकता है भारत
भारत की योजना अरूणाचल-प्रदेश में करीब 25 बांध बनाने की है। अगर इन बांधों को बनाने का काम चीन के बांध निर्माण कार्य से पहले पूरा हो गया तो भारत चीन पर नदी के पानी के इस्तेमाल को लेकर दवाब बनाने के मामले में बढ़त हासिल कर सकता है। इसके बाद वैधानिक ढंग से भी इस मामले को उठाया जा सकता है। कानूनी तर्क कहता है कि जिस देश ने पहले निर्माण कार्य पूरा किया है वो प्राकृतिक संसाधनों के पहले इस्तेमाल को लेकर पहले हकदार के रूप में अपना दावा ठोंक सकता है बजाय दूसरे के। यह सवाल तब उठ खड़ा होगा जब भारत, चीन से इस मामले में बाजी मार लेगा। इससे पहले चीन ने मीकांग नदी आयोग के समक्ष एक मामले में इस तरह के किसी वैधानिक तर्क और अधिकार को स्वीकार नहीं किया था।

तिब्बत के विश्वास और भावनाआें का दोहन करने के बाद शायद चीन द्वारा वहां के प्राकृतिक संसाधनों के इस शोषण से उनके भार में कुछ कमी आ जाए। लेकिन भारत को इस मामले में बेहद सजग और चौंकन्ना रहना होगा। हमें चीन के खिलाफ अनावश्यक रूप से किसी विवाद को ना बढ़ाने की ओर जोर देना चाहिए। 

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